अर्धमत्स्येंद्रासन
कहते हैं कि मत्स्येन्द्रासन की रचना गोरखनाथ के गुरु स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ ने की थी। वे इस आसन में ध्यानस्थ रहा करते थे। मत्स्येन्द्रासन की आधी क्रिया को लेकर ही अर्ध-मत्स्येन्द्रासन प्रचलित हुआ। रीढ़ की हड्डियों के साथ उनमें से निकलने वाली नाड़ियों को यह आसन पुष्ट करता है।
*विधि
बैठकर दोनों पैर लंबे किए जाते हैं। तत्पश्चात बाएँ पैर को घुटने से मोड़कर एड़ी गुदाद्वार के नीचे जमाएँ। अब दाहिने पैर को घुटने से मोड़कर खड़ा कर दें और बाएँ पैर की जंघा से ऊपर ले जाते हुए जंघा के पीछे जमीन पर रख दें। अब बाएँ हाथ को दाहिने पैर के घुटने से पार करके अर्थात घुटने को बगल में दबाते हुए बाएँ हाथ से दाहिने पैर का अँगूठा पकड़ें। अब दाहिना हाथ पीठ के पीछे से घुमाकर बाएँ पैर की जाँघ का निम्न भाग पकड़ें। सिर दाहिनी ओर इतना घुमाएँ कि ठोड़ी और बायाँ कंधा एक सीधी रेखा में आ जाए। नीचे की ओर झुकें नहीं। छाती बिल्कुल तनी हुई रखें।
*सावधानी
रीढ़ की हड्डी में कोई शिकायत हो साथ ही पेट में कोई गंभीर बीमारी हो ऐसी स्थिति में यह आसन न करें।
*इसके लाभ
अर्धमत्स्येंद्रासन से मेरुदंड स्वस्थ रहने से स्फूर्ति बनी रहती है। रीढ़ की हड्डियों के साथ उनमें से निकलने वाली नाड़ियों को भी अच्छी कसरत मिल जाती है। पीठ, पेट के नले, पैर, गर्दन, हाथ, कमर, नाभि से नीचे के भाग एवं छाती की नाड़ियों को अच्छा खिंचाव मिलने से उन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। फलत: बंधकोष दूर होता है। जठराग्नि तीव्र होती है। विवृत, यकृत, प्लीहा तथा निष्क्रिय वृक्क के लिए यह आसन लाभदायी है। कमर, पीठ और संधिस्थानों के दर्द जल्दी दूर हो जाते हैं।
कहते हैं कि मत्स्येन्द्रासन की रचना गोरखनाथ के गुरु स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ ने की थी। वे इस आसन में ध्यानस्थ रहा करते थे। मत्स्येन्द्रासन की आधी क्रिया को लेकर ही अर्ध-मत्स्येन्द्रासन प्रचलित हुआ। रीढ़ की हड्डियों के साथ उनमें से निकलने वाली नाड़ियों को यह आसन पुष्ट करता है।
*विधि
बैठकर दोनों पैर लंबे किए जाते हैं। तत्पश्चात बाएँ पैर को घुटने से मोड़कर एड़ी गुदाद्वार के नीचे जमाएँ। अब दाहिने पैर को घुटने से मोड़कर खड़ा कर दें और बाएँ पैर की जंघा से ऊपर ले जाते हुए जंघा के पीछे जमीन पर रख दें। अब बाएँ हाथ को दाहिने पैर के घुटने से पार करके अर्थात घुटने को बगल में दबाते हुए बाएँ हाथ से दाहिने पैर का अँगूठा पकड़ें। अब दाहिना हाथ पीठ के पीछे से घुमाकर बाएँ पैर की जाँघ का निम्न भाग पकड़ें। सिर दाहिनी ओर इतना घुमाएँ कि ठोड़ी और बायाँ कंधा एक सीधी रेखा में आ जाए। नीचे की ओर झुकें नहीं। छाती बिल्कुल तनी हुई रखें।
*सावधानी
रीढ़ की हड्डी में कोई शिकायत हो साथ ही पेट में कोई गंभीर बीमारी हो ऐसी स्थिति में यह आसन न करें।
*इसके लाभ
अर्धमत्स्येंद्रासन से मेरुदंड स्वस्थ रहने से स्फूर्ति बनी रहती है। रीढ़ की हड्डियों के साथ उनमें से निकलने वाली नाड़ियों को भी अच्छी कसरत मिल जाती है। पीठ, पेट के नले, पैर, गर्दन, हाथ, कमर, नाभि से नीचे के भाग एवं छाती की नाड़ियों को अच्छा खिंचाव मिलने से उन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। फलत: बंधकोष दूर होता है। जठराग्नि तीव्र होती है। विवृत, यकृत, प्लीहा तथा निष्क्रिय वृक्क के लिए यह आसन लाभदायी है। कमर, पीठ और संधिस्थानों के दर्द जल्दी दूर हो जाते हैं।

Thank you ConversionConversion EmoticonEmoticon